कुछ मेरे बारे में

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आईज़ोल, मिज़ोरम, भारत
अब अपने बारे में मैं क्या बताऊँ, मैं कोई भीड़ से अलग शख्सियत तो हूँ नहीं। मेरी पहचान उतनी ही है जितनी आप की होगी, या शायद उससे भी कम। और आज के जमाने में किसको फुरसत है भीड़ में खड़े आदमी को जानने की। तो भईया, अगर आप सच में मुझे जानना चाहते हैं तो बस आईने में खुद के अक्स में छिपे इंसान को पहचानने कि कोशिश कीजिए, शायद वो मेरे जैसा ही हो!!!

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बुधवार, 30 सितंबर 2009

आवारा पूँजी (तीसरा एवं अंतिम भाग)

लेकिन यदि इस प्रक्रिया के मध्य में ही पूँजी पलायन प्रारम्भ हो गया तो अर्थव्यवस्था लड़खड़ा सकती है। अतः अंतर्रष्ट्रीय निवेश को नियंत्रण में रखना आवश्यक है। इस नियंत्रण कि शुरूआत पी-नोट्स पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगा कर या कम से कम इनमें पारदर्शिता ला कर किया जा सकता है। कुछ हद तक ऐसा किया भी जा रहा है।

आइए अब एक कदम और आगे बढाते हैं। सभी अर्थव्यवस्थाओं में मुद्रा की परिवर्तनशीलता (पूर्ण अथवा आंशिक; मुक्त अथवा नियंत्रित) कि प्रक्रिया पाई जाती है। भारतीय संदर्भ में इसकी व्याख्या करने से पहले इसके आशय पर प्रकाश डालते हैं। वह दौर अब आखरी सांसे ले रहा है या शायद पूर्णतयः समाप्त हो चुका है जब मुद्रा कि परिवर्तनीयता का आशय पत्र मुद्रा का स्वर्ण, रजत अथवा अन्य बहिमूल्य धातू में परिवर्तन से लगाया जाता था। वर्तमान में राष्ट्रीय मूद्रा का अमरिकी डालर (यू.एस. $) में परिवर्तनीयता ही इसका आशय है।

आइए अब इस आवारा पूँजी को रूपए कि परिवर्तनीयता के संदर्भ में देखते हैं। यदि देश में परिवर्तन दर पर पूर्ण सरकारी नियंत्रण होगा तो सरकार इस दर को कम कर के प्रति इकाई मिलने वाली अंतर्राष्ट्रीय मूद्रा को कम कर के पूँजी पलायन को हतोत्साहित कर सकती है। प्रथमदृष्टया यह परिस्थिति सर्वोत्तम लगती है लेकिन ऐसे नियंत्रित अर्थव्यवस्था में स्वस्थ प्रतियोगिता का नितांत अभाव होता है और यह अभाव खरे एवं वास्तविक अंतर्राष्ट्रीय पूँजी के निवेश को भी हतोत्साहित करता है। इस बदली स्थिति में मिश्रित नियंत्रण बेहतर विकल्प हो सकता है जिसके अंतर्गत यदि कोई निवेशक यदि विनिवेश कर वापस जाना चाहता है तो उसे अपने निवेश के एक हिस्से को बाज़ार भाव पर डालर मे परिवर्तन कि अनुमति होती है जबकि बाकी हिस्से का सरकारी दर पर परिवर्तन अनिवार्य होता है, जो कि बाज़ार दर से कम ही होता है। जबकि तीसरी दशा में विनिवेशित पूर्ण राशी का डालर में परिवर्तन अप्रतिबन्धित होता है, अर्थात पूर्ण राशी का बाज़ार भाव पर डालर में परिवर्तन संभव है। सरकार को इन परिस्थितियों में से कोई एक को देशहित को मद्देनज़र रखते हुए चुनना होगा।

यहां इस तथ्य का उल्लेख करना अनुचित नहीं होगा कि रुपये को चालू खाते पर यानि व्यापारिक लेन-देन के लिए पहले ही पूर्ण परिवर्तनीय बनाया जा चुका है। अब वर्तमान सरकार इसे पूंजीगत खाते पर भी पूर्ण परिवर्तनीय बनाना चाहती है। पूंजीगत खाते पर पूर्ण परिवर्तनीयता का अर्थ यह होता है कि कोई भी भारतीय विदेशों में और कोई भी विदेशी भारत में रुपयेको डॉलर में और डॉलर को रुपयेमें बदलकर संपत्ति की खरीद-बिक्री कर सकता है। यानि रुपये को डॉलर में और डॉलर को रुपये में बदलने और उसे भारत से विदेश और विदेश से भारत लाने में कोई रोक-टोक नहीं होगी।

इस संदर्भ में पूर्ण परिवर्तनीयता के पक्षधरों का यह कहना है कि इससे विदेशी निवेश आकर्षित होता है और अर्थव्यवस्था को गति मिलती है क्योंकि वह सीधे अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय व्यवस्था से जुड़ जाती है। उनका विश्वास है कि भारतीय अर्थव्यवस्था को उच्चतर विकास की अवस्था में ले जाने के लिए पूर्ण परिवर्तनीयता जरूरी शर्त है।

लेकिन पूर्ण परिवर्तनीयता के समर्थन में दिए जानेवाले तर्कों को हमेशा संदेह की नजर से देखा जाता रहा है। पहली बात तो यह है कि ऐसा कोई निश्चित सबूत या उदाहरण नहीं है जिसके आधार पर यह दावा किया जा सके कि विदेशी निवेश को आकर्षित करने या अर्थव्यवस्था को उच्चतर अवस्था में ले जाने के लिए पूर्ण परिवर्तनीयता जरूरी है। नोबल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री दानी रॉद्रिक ने पूर्ण परिवर्तनीयता लागू करनेवाले ऐसे 23 देशों के अध्ययन के बाद यह निष्कर्ष निकाला कि पूर्ण परिवर्तनीयता और अर्थव्यवस्था के तीव्र विकास के बीच कोई सीधा संबंध नहीं है। दूसरी बात यह है कि विदेशी निवेश आकर्षित करने के लिए पूर्ण परिवर्तनीयता कोई जरूरी शर्त नहीं है क्योंकि ऐसे कई देशों में भारी विदेशी निवेश हुआ है जहां पूर्ण परिवर्तनीयता नहीं है और कई ऐसे देशों में पूर्ण परिवर्तनीयता के बावजूद विदेशी निवेश न के बराबर हुआ है।

एक पुरानी कहावत है, जहाँ दस अर्थशास्त्रि होंगे वहाँ ग्यारह मत होंगे। ऐसा इस लिए कहा जाता है क्यों कि आमतौर पर कोई भी नीति हर परिस्थिति में एक समान उपयोगी नहीं होती है। अन्य शब्दों में हर नीतिगत फैसला अनुकूल परिस्थितियों का मोहताज़ होता है, एक फैसला जो एक परिस्थिति में उचित हो ज़रूरी नहीं दूसरी परिस्थिति में भी उचित ही हो। अत: प्रत्येक नीतिगत फैसला वर्तमान परिस्थिति के मद्देनज़र ही लिया जाना चाहिए और परिस्थिति बदल जाने पर उक्त नीति को भी बदल देना चाहिए।

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