कुछ मेरे बारे में

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आईज़ोल, मिज़ोरम, भारत
अब अपने बारे में मैं क्या बताऊँ, मैं कोई भीड़ से अलग शख्सियत तो हूँ नहीं। मेरी पहचान उतनी ही है जितनी आप की होगी, या शायद उससे भी कम। और आज के जमाने में किसको फुरसत है भीड़ में खड़े आदमी को जानने की। तो भईया, अगर आप सच में मुझे जानना चाहते हैं तो बस आईने में खुद के अक्स में छिपे इंसान को पहचानने कि कोशिश कीजिए, शायद वो मेरे जैसा ही हो!!!

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शुक्रवार, 30 दिसंबर 2011

लोकपाल का ऊँठ किस करवट बैठेगा

मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि लोकपाल पर मैं किस पक्ष के साथ हूँ, कल रात बारह बजे तक मैं अपने पाँचो इंद्रियों कि सहायता से यह समझने कि कोशिश करता रहा कि सदन में चल रही चर्चा लोकपाल के विषय पर है या राजनैतिक (काफी हद तक अनैतिक) दावं-पेंच और एक दूसरे को नीचा दिखाने कि कवायद है। हालांकि छ्टी इंद्री तो लगातार कह रही थी कि सदन में कोई भी बिल को पास करने की इच्छा नहीं रखता है (आखिर अपने पैंरो पर कोई कुल्हाडी क्यों मारेगा?)।

कल जिस तरह से सरकार वोटिंग से पीछे हट गई, या यूं कहा जाय की सदन से भाग खडी हुई, वो अप्रत्याशित और शर्मसार करने वाला था (अगर कोई शर्म महसूस करे तो)। अब इसी विषय पर सभी दल अपना-अपना राग अलाप रहे हैं, (औफकोर्स पोलिटिकल माईलेज के लिए, और कुछ हद तक अपनी गलती छुपाने के लिए भी) । इसी संदर्भ में मैं यह सोच रहा हूँ कि अगर वोटिंग होती तो क्या होता? (यह प्रश्न कुछ-कुछ "यदि होता किन्नर नरेश मैं, राजमहल में रहता" टाईप का लग रहा है, पर है नहीं) । दो ही नतीजा हो सकता था, या तो बिल पास होता या गिर जाता । और पास कैसे होता (यदि तनिक भी गुंजाइश होती तो सरकार सरक के भाग थोडे ही जाती) उसे तो गिरना ही था  (और यह तो सब जानते भी थे) । 


अगर ऐसा वाकई था तो फिर वह क्यों हुआ जो हुआ ।  और यह भी छोडिये यह सोचिए कि जब रिज़ल्ट  तय था और उससे बिल का पास न होना भी तय था तब यह नाटक क्यों? जहाँ तक मेरा अल्पज्ञान जाता है यह सब केवल इसलिए हुआ क्योंकि विपक्ष के हाथ से सरकार कि किरकिरी करने का मौका हाथ से निकल गया इसलिए निराश है और सरकार को लगता है कि वोटिगं भले ही न हुई हो सबलोग समझ रहे हैं हार तो तय ही थी, इसलिए हताश है। 

यह हताशा और निराशा तो राजनीति में चलती रहती है, मेरी समस्या है कि इन हताशा और निराशा के बीच लोकपाल कहाँ दफन हो गया पता ही नही चला, और इससे बडी समस्या यह है कि चर्चा  वोटिग पर तो हो रही है लोकपाल गायब है । 

आज अरविन्द केजरीवाल जी ने यह कहा कि "यदी सरकार वोटिगं कराती तो हो सकता है कि हमें एक लोकपाल मिल जाता जो कम-से-कम एक शुरूआत तो होती? "  मैं अब वाकई दुविधा में हूँ, या शायद त्रिविधा में कि मैं किस पाले में जाँऊ (क्योकि यह सब लोग तो मेरे पाले मैं आने से रहे) । अभी एकदिन पहले तक तो यह बिल किसी काम का नहीं था उसका न पास होना ज्यादा अच्छा था अब क्या हो गया ? 

पिछने 8-10 महीनों से पूरा देश देखना चाह रहा है कि "ऊँठ किस करवट बैठता है" लगता है अब मार्च में बजट के समय तक इंतज़ार करना होगा । कहीं ऐसा नहो कि यह ऊँठ बैठे ही नहीं । 

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